महाकवि विद्यापति की भाषा-शैली
शाहिद इलियास
मैथिल कोकिल विद्यापति संस्कृत, अवहट्ठ और हिन्ही के महान
रचनाकार हैं । बंगला वाले भी उन्हें ब्रजबुलि अर्थात बंगला भाषा के रचनाकार मानते
हैं । उनकी भाषा-शैली परिष्कृत एवं अनुपम है । उनकी रचना 'कीर्तिलता' की भाषा अवहट्ठ और पदावली की भाषा मैथिली है ।
उन्होंने अपनी भाषा को 'देसिल वअना सब जन मिट्ठा' कहा है और अपनी रचनाओं के बारे में
वह इतने आश्वस्त थे और उन्हें इतना आत्मविश्वास था कि अपनी प्रारम्भिक कृति 'कीर्तिलता' में उन्होंने घोषणा कर दी ౼
'बालचन्द विज्जावइ भासा । दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा' अर्थात् बालचन्द्रमा और विद्यापति की भाषा ౼ दोनों ही
दुर्जनों के उपहास से परे हैं । इसी तरह 'महुअर बुज्झइ, कुसुम रस, कब्व कलाउ छइल्ल' अर्थात् मधुकर ही कुसुम रस का स्वाद जान सकता है, जैसे काव्य रसिक ही काव्य कला का मर्म समझ सकता है ।
'कीर्तिलता' के प्रथम पल्लव में जनोन्मुख होने
के सम्बन्ध में कवि ने स्वयं साफ़-साफ़ कहा है –
'सक्कअ वाणी बुहअण भावइ ।
पाउअ रस को मम्म न पावइ ।
देसिल वअना सब जन मिट्ठा ।
तें तैसन जम्पओ अवहट्टा ।'
अर्थात् संस्कृत भाषा बुद्धिमानों
को ही भाती है । प्राकृत में रस का मर्म नहीं मिलता । देशी भाषा सबको मीठी लगती है, इसीलिए इस प्रकार अवहट्ट में मैं काव्य लिखता हूँ ।
ज़ाहिर है कि लोकरुचि और लोकहित
के पक्ष में सोचने वाले इतने बड़े चिन्तक, जब पदावली रचने में
लगे होंगे तो उन्होंने भाषा के बारे में एक बार फिर से सोचा होगा और उसकी भाषा तत्कालीन समाज की लोकभाषा मैथिली अपनाई होगी
और अपने पदों में समकालीन समाज की चित्तवृत्ति का चित्र खींचा होगा ।
महाकवि विद्यापति का जन्म 1350
ई. के आसपास वर्तमान मधुबनी ज़िला के बिसपी नामक गाँव में हुआ था । देहावसान सन् 1440
ई. हुआ था । बिसपी नामक गाँव बिहार के दरभंगा ज़िले के बेनीपट्टी थाना के अंतर्गत आता
है, जो मिथिलांचल का प्रसिद्ध गांव है ।
मैथिली विद्यापति की मातृभाषा
थी । उस काल के साहित्य या उससे पूर्व भी ज्योतिरीश्वर
ठाकुर रचित 'वर्णरत्नाकर' के अनुशीलन से पता चलता है कि मैथिली उस समय की पर्याप्त समुन्नत भाषा है
। यह सर्वमान्य तथ्य है कि मैथिली में उन्होंने विपुल परिमाण में मुक्तक काव्य लिखे हैं और उन्हें हम 'विद्यापति पदावली' के नाम से जानते हैं । विद्यापति की कीर्ति का मुख्य आधार उनकी
पदावली ही है ।
विद्यापति की भाषा पर विचार
करते हुए पं. शिवनन्दन ठाकुर लिखते हैं, ''भाषा के इतिहास और विशेषतः उस भाषा का इतिहास
जिस पर अनेक अत्याचार हुआ हो और अभी भी हो रहा हो,
जो विभिन्न विद्वानों द्वारा कभी बंगला तो कभी हिन्दी पर्यन्त
बना दिया गया हो तथा जिसके मन्त्रमुग्धकारी पदों का प्रकाशन भाषाविज्ञान एवं मैथिली
से अपरिचित अन्य भाषा-भाषी द्वारा होने के कारण अन्यान्य भाषाओं के रंग में इस तरह
रंग दिया गया हो कि उसे विद्यापतिकालीन मैथिली के शुद्ध रूप में उपस्थित करना कठिन
ही नहीं असम्भव जैसा हो गया हो ౼ वह स्थिति
वस्तुतः अत्यन्त रोचक और चित्ताकर्षक होगा ।'' (महाकवि विद्यापति/ मैथिली संस्करण/पृ. 189)
लेखक त्रय ౼ डॉ. धनंजय कुमार दुबे, डॉ. अनिल कुमार एवं अरुणाकर पाण्डेय
'आदिकालीन एवं भकितकालीन काव्य' में लिखते हैं౼
''हिन्दी साहित्य के आदिकाल में देश भाषा काव्य के अन्तर्गत विद्यापति का महत्व
फुटकल रचनाओं के साहित्यकार के रूप में किया जाता है । देश भाषा का अर्थ सामान्य
जनता की बोलचाल की भाषा से है । अतः यह धारणा बनती है कि साधारण जनता की भाषा के
कवि हैं और उनके काव्य और भाषा का महत्व इसमें पता चलता है कि उन्हें 'मैथिल कोकिल' की उपाधि दी जाती है ।'' (पृ. 21)
पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
के शब्दों में, ''विद्यापति ने हिन्दी में जन-भाषा में, श्रृंगारिक-रस के क्षेत्र
के लिए मर्यादा बांधकर चाहे कृष्ण भक्त कवियों का उतना उपकार न किया हो, पर
श्रृंगार काल के कवियों के लिए वे बहुत बड़ उपकार कर गए ।'' (आदिकालीन एवं
भकितकालीन काव्य, पृ. 21)
जन-भाषा अर्थात् बोल-चाल की
भाषा के शब्दों की विद्यापति के काव्य में बहुलता है । समाज में प्रचलित लोकोक्तियों
और मुहावरों को भुनाने की ऐसी अच्छी तरकीब अन्यत्र कम देखने को मिलती । कहा जा सकता
है कि अपने काव्य उपादानों का हर सम्भव दोहन महाकवि ने किया है । लोक जीवन में प्रचलित
मुहावरों का उनके गीतों में न केवल उपयोग हुआ है, बल्कि उसकी पृष्ठभूमि उनके यहाँ बक़ायदा गीत का विषय भी बनी
है । 'करु अभिलाख मनहि पद पंकज, अहोनिसि कोर अगोरि', 'ए सखि पेखलि एक अपरूप, सुनइत मानबि सपन-सरूप', 'मोरा रे अँगनवाँ
चनन केर गछिया', 'पिआ मोरा बालक हम तरुणी
गे' जैसे गीतों का लोककण्ठ में बस जाना इसी का परिणाम है।
पदावली में संस्कृत,
अपभ्रंश, ब्रजभाषा, नेपाली, बंग प्रान्तीय, ओड़िया, असमिया आदि के शब्दों और अनेक कारक रूपों के साथ-साथ मगही,
भोजपुरी जैसी उपभाषाओं के बड़े सफल और सहज प्रयोग हुए हैं। हाल-हाल
तक बंगाल के विद्वानों में विद्यापति को बंगला के रचनाकार घोषित करने की अफ़रा-तफ़री
मची हुई थी, इसका कारण शायद यही रहा हो।
मूलतः मैथिली में रचित इन गीतों
में बाहरी भाषाओं से लिए गए इन शब्दों, पदों या अन्य कारक रूपों के बावजूद कहीं सम्प्रेषण में गतिरोध
नहीं होता। यह महाकवि की श्रेष्ठ रचनाधर्मिता और तल्लीन जनसरोकार से ली गई अनुभूति
का ही फल है। 'नअनक नीर चरन
तर गेल' 'पुरुष भमर सम कुसुमे कुसुमे रम',
'प्रथमहि हाथ पयोधर लागु',
'निसि निसिअरे भम,
भीम भुअंगभ'
जैसे गीतों को देखकर ऐसा तो स्पष्ट होता ही है।
उनकी भाषा की तल्खी यह रही
कि समीपवर्ती कई अन्य भाषाओं के रचनाकार उनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहे। बंगला,
ओड़िया और असमिया के तत्कालीन साहित्य में या बहुभाषाविद प्रारम्भिक
श्रेष्ठ रचनाकारों के यहाँ इन प्रभावों की तलाश की जा सकती है। पं. शिवनन्दन ठाकुर
के अनुसार, विद्यापति की कोमलकान्त पदावली पर बंगलाभाषी मुग्ध हो गए। उस भाषा के अनुकरण
पर एक नई भाषा बनी जिसे अभी तक बंगलाभाषी लोग ब्रजबुलि कहते हैं। इस भाषा में सैकड़ों
वैष्णव पद एवं कविताओं की रचना बंग प्रदेश में हुई। मिथिलावासी उनकी भाषा को मैथिली
मानते हैं और सच्चाई भी यही है कि विद्यापति की भाषा मिथिली ही है, भले ही बंगाली उन्हें बंगदेशीय
मानते हुए उनकी भाषा बंगला सिद्ध करने की कोशिश करते रहे ।
विद्यापति के काव्यों को देखकर
यही कहना समीचीन लगता है कि उनकी भाषा मैथिली है, ब्रजभाषा अथवा बंगला नहीं । इस सम्बन्ध में डॉ. सुनीति कुमार
चटर्जी और डॉ. दिनेश चन्द्रसेन आदि का मत है कि कई बंगाली रचनाकार मैथिली पर मुग्ध
होकर उसमें रचना करने लगे। शताधिक बंगाली कवियों ने इस भाषा में काव्य रचना की। अनुकरण
का प्रवाह तो ऐसा हुआ कि कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर पर्यन्त इसमें प्रवाहित हुए,
पर इस दिशा में कोई अनुसन्धान नहीं हुआ कि यह भाषा कहाँ की है।
भ्रम में इसे 'ब्रजबुलि' कहा जाता रहा, शोध करने पर निश्चित रूप से तय होगा कि यह मैथिली है। हमें यह
कहना चाहिए कि महाकवि ने मैथिली भाषा को एक स्वरूप दिया,
विविधता दी, विस्तार दिया, प्रवाह दिया ।
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने उनके काव्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है,
''गीत गोविन्द के रचनाकार जयदेव
की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़ कर । अपनी कोकिल कंठता के कारण
ही उन्हें 'मैथिल कोकिल' कहा जाता है ।''
हमें श्रीयुत ग्रियर्सन साहब
को भी धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिए जिन्होंने सबसे पहले विद्यापति को बिहारी होना सिद्ध
किया था । आज यह पूर्णत: सिद्ध हो चुका है कि विद्यापति की पदावली की भाषा मैथिली रही
है । हाँ,
यह अवश्य है कि यह आजकल की मैथिली से भिन्न है ।
ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि भाषा समय की गति के साथ परिवर्तित
होती रहती है । 500 वर्षों में इसमें थोड़ी भिन्नता आना स्वाभाविक है ।
निष्कर्ष यह कि विद्यापति के पदों में विभिन्न
भाषाओं का अद्भुत संगम मिलता है । जितनी नवीनता व ताज़गी उनकी भाषाओं में है,
उनकी भाषा उनको वहन करने में उतनी ही अधिक समर्थ व सबल है ।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम साधन है और विद्यापति के काव्य में भाषा का सौंदर्य
अभूतपूर्व है । इनकी भाषा सरस, सुन्दर,
मधुर एवं प्रवाहमयी है, जिसका सुदीर्घ प्रभाव बिहार, बंगाल, असम और उड़ीसा में
स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ उनकी भाषा धर्म की भाषा का दर्जा हासिल कर
चुकी है । तभी तो रामवृक्ष बेनीपुरी जी विद्यापति को 'हिन्दी का जयदेव' और 'मैथिल कोकिल' कहते थे ।
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