अमीर ख़ुसरो के काव्य की मूल संवेदना


अमीर ख़ुसरो के काव्य की मूल संवेदना
शाहिद इलियास
भूमिका
किसी युग का प्रतिनिधि साहित्यकार बैरोमीटर की तरह अपने समय के परिवर्तन दर्ज करता है। ख़ुसरो ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिनकी रचनाओं में उनके युग का स्पंदन साफ़ सुनार्इ देता है। उन्होंने फ़ारसी और हिंदुस्तानी ज़बान में विपुल साहित्य रचा है । हिंदुस्तानी ज़बान में रचे उनके साहित्य का मनमोहक रंग खड़ी बोली का है। ख़ुसरो में संस्कृतियों का मिलन है। अभिजात और जन-संस्कृति का जैसा संगम ख़ुसरो की कविता में है, वैसा अन्यत्र कम ही मिलता है। उनकी कविता को समझना लोक-मन को समझना है।
ख़ुसरो के जीवन की विविधता अनेकरूपा है। वे दरबार से भी जुड़े हैं और जन से भी। उन्हें पाँच-पाँच सल्तनतों के दरबारों के अनुभव मिले। मिश्र भाषा में जीना उनका स्वभाव रहा। काव्य-रूपों का भी ख़ुसरो ने विविधतामय प्रयोग किया है। उनके द्वारा प्रयुक्त प्रमुख काव्य-रूप हैं : गीत (बाबुल गीत, झूला गीत, सावन गीत, बसंत गीत), पहेलियाँ (बूझ पहेली, अनबूझ पहेली), कह मुकरियाँ, दो सुखना, अनमेलिया या ढकोसला, निसबत, ग़ज़ल, दोहा और फुटकर पद्य। ख़ुसरो की खड़ी बोली में रचित रचनाएँ आज भी लोकंठ में, जन-मन में जीवित हैं।
अपने युग की महानतम ‍शख्सियत अमीर ख़ुसरो को खड़ी बोली हिन्दी  का पहला कवि माना जाता है। इस भाषा का इस नाम (हिन्‍दवी) से उल्‍लेख सबसे पहले उन्‍हीं की रचनाओं में मिलता है। हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्दी  रचनाएं ही हैं। उनकी कविता एक ऐसा दर्पण है, जिसमें उनके समय का हिंदुस्तान तो प्रतिबिंबित है। इसमें उनका प्रेम भरा हृदय झलक रहा है। हिन्दी उनकी जबान है। वे कहते हैं :
चू मन तूतिए-हिन्दम, अर रास्त पुर्सी।
जे मन हिंदुर्इ पुर्स, तर नग्ज़ गोयमय्
(मैं तूती-ए-हिन्‍द हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा।)
एक अन्‍य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ''तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब।'' (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं।)
खड़ी बोली, जिसे आज हिंदी और उर्दू के नाम से जानते हैं, अमीर ख़ुसरो की क़लम से निकली। उन्होंने अपनी सादी जनभाषा में कई पहेलियां लिखीं जो आज भी हमारे गांव और क़स्बों में बहुत प्रचलित हैं हिल-हिल के वो हुआ निसंखा, ऐ सखि साजन, ना सखि 'पंखा'
महिलाओं की मन: स्थिति पर अमीर ख़ुसरो ने दिल को छू लेने वाली नज्में और गीत लिखे हैं। लड़की की बिदाई पर गाया जाने वाला यह गीत आज भी आंखों में पानी भर देता है काहे को ब्याहे बिदेस, अरे लखिया बाबुल मोरे। अपनी कविताओं में उन्होंने वतन हिंदुस्तान की झूम-झूम कर तारीफ़ की है। हिंदुस्तानियों के सांवले रंग पर उन्हें घमंड था।
ख़ुसरो दरिया प्रेम का उलटी बाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार
सेज वो सूनी देखकर रोऊँ मैं दिन रात,
पिया-पिया मैं करत हूँ पहरों पल भर सुख न चैन
गोरी सोये सेज पर मुख पर डारे केस,
चल ख़ुसरो घर आपने सांझ भई चहुँ देस।
गांधी जी ने चरखे को लोकप्रिय बनाया था, लेकिन चरखा तो ख़ुसरो के ज़माने से ही लोकप्रिय रहा है। इसका प्रमाण उनके काव्य में, खासतौर पर उनकी उलटबासियों में मिलता है
भार भुजावन हम गए, पल्ले बांधी ऊन कुता चरखा ले गयो, कायते फटकू चून
खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय आयो कुत्तो गयी तू बैठी ढोल बजाय ला पानी पिलाय
ख़ुसरो हिन्दू-मुस्लिम, र्इरान-भारत, फ़ारसी-हिंदवी को निरन्तर निकट लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी कविता को भाषा-शिक्षण का माध्यम बनाया। हिन्दी को हिंदवी नाम उन्होंने ही दिया था। भाषाओं को निकट लाने के लिए उन्होंने दो-सुखना का तो सहारा लिया ही, पहली बार ऐसी ग़ज़ल की भी रचना की जो फ़ारसी और हिंदुस्तानी दोनों भाषाओं में है।
अमीर ख़ुसरो का जन्म 3 मार्च 1253 ई० में 'पटियाली' ज़िला एटा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। अमीर ख़ुसरो का मूल नाम 'अबुल हसन यमीनुद्दीन' था। 'ख़ुसरो' इनका उपनाम था। इन्हें 'अमीर' की उपाधि जलालुद्दीन ख़िलजी द्वारा इनकी कविता से प्रभावित होकर दी गई थी। इस प्रकार आगे चलकर ये 'अमीर ख़ुसरो' के नाम से ही प्रसिद्ध हुए । ईरानियों ने उन्हें 'तूती-ए-हिन्द' कहा ।
अपने गुरु निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु के समय ख़ुसरो शाही काम से दिल्ली से बाहर थे। लौटने पर वे उनकी मृत्यु की ख़बर सुनकर सन्न रह गए । मर्माहत होकर उन्होंने यह दोहा पढ़ा
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भर्इ चहुँ देस।।
ख़ुसरो का यह दोहा अमर है । इसमें पूरा सूफ़ी दर्शन समाहित है । ख़ुसरो की मज़ार पर हर वर्ष होने वाले उर्स के आयोजन का आरंभ इसी दोहे से होता है।
निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु के थोड़े दिन बाद ही सन 1325 में ख़ुसरो का भी देहांत हो गया था।
ख़ुसरो मूलत: प्रेम के गायक कवि हैं। उनकी कविताओं में सूफ़ी प्रेम का भावपूर्ण प्रतिबिंबन है। सूफ़ी जिस अलौकिक प्रेम की पीर गाते हैं, उसे लौकिक प्रेम के बिना अनुभव का विषय नहीं बनाया जा सकता। उनके हिन्दी गीतों और उर्दू ग़ज़लों में प्रेम की हद दर्जे की दीवानगी मिलती है। प्रेम का यह खेल हार और जीत दोनों स्थितियों में मिलन में समाप्त होता है।
ख़ुसरो के गीतों में साजन, नैहर, पिया का घर जैसे संदर्भ विशेष रूप से आए हैं और इन्होंने ही एक ख़ास तरह के गीतों को जन्म दिया, जिन्हें 'बाबुल गीत' कहा गया। ये गीत भारतीय जनजीवन की गहरी छाप लिए हैं। ऐसी एक अद्भुत रचना इस प्रकार है
काहे को बियाही परदेस,
सुन बाबुल मोरे। आए बेगाने देस,
सुन बाबुल मोरे।
भारतीय स्त्री की वेदना-गाथा की झलक इस गीत में बहुत स्पष्ट है। आज स्त्री-विमर्श के संदर्भ में लड़के-लड़की के बीच भेद-भाव का जो मुरझा उठा है, उसकी झलक इन पंकितयों में है
भइया को दीहे महला-दुमहला,
हम के दिहे परदेस।
ख़ुसरो के काव्य रूप
पहेलियाँ  : ख़ुसरो अपने समय के लोकजीवन के मन तक उतरे हैं। लोकमन की राह भाषा है। उस समय उच्च मुस्लिम वर्ग फ़ारसी के प्रयोग के कारण भारतीय जनमानस से नहीं जुड़ पाया था। ख़ुसरो ने ठेठ देशज शब्दों का व्यवहार 'पहेलियों', 'मुकरियों' और 'दो सुखनों' में किया है। पहेली की रोचकता, जिज्ञासा और क्रीड़ापरकता की शक्ति को ख़ुसरो ने पहचाना और इसके बलपर वे जन-साधारण से जुड़ सके। एक ओर हिंदुस्तानी ज़बान के  माध्यम से वे दरबार तक हिन्दी को ले जा रहे थे, दूसरी ओर दरबार को इस ज़बान के माध्यम से जनता से जोड़ रहे थे। इन सरल विधाओं से वे पाठकों को काव्य-रचना के अभ्यास के लिए भी प्रेरित करते थे।
ख़ुसरो की पहेलियों के कुछ रोचक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं :
श्याम बरन और दाँत अनेक
लचकत जैसी नारी
दोनों हाथ से ख़ुसरो खींचे
और कहे तू आ री। आरी
ख़ुसरो की पहेलियों में अदभुत कल्पनाशील चित्रात्मकता है। उदाहरण देखिए :
एक पुरुख ने ऐसी करी
खूँटी ऊपर खेती करी
खेती बारी दर्इ जलाप
वार्इ के ऊपर बैठा खाय । कुम्हार
मुकरियाँ  : भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित अपन्हुति अलंकार में मूल बात छिपाकर दूसरी बात को सामने लाया जाता है। भाषा की ऐसी विशेषता ख़ुसरो ने मुकरियों में उपस्थित की है। 'मुकरियाँ शब्द मुकरना से बना है, जिसका अर्थ है कही बात से मुकर जाना। ख़ुसरो ने मुकरियों में भाषिक चमत्कार और कल्पना-शक्ति का अच्छा परिचय दिया है। एक उदाहरण देखिए :
जब कोरे मंदिर में आवे
सोते मुझको आन जगावे
पढ़त फिरत वह बिरह के अच्छर
ऐ सखी साजन, ना सखी मच्छर
दोसुखने :  जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसमें दो अलग अलग पहेलियाँ पूछी जाती हैं, जो वस्तुतः एक वक्तव्य के रूप में होती हैं। लेकिन मज़ेदार बात ये है कि दोनों के उत्तर एक ही होते हैं अर्थ भिन्न (इन्हें आप श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द कह सकते हैं)। जैसे-
                  गोश्त क्यों न खाया?
                  गीत क्यों न गाया?                            
 उत्तरः गला न था
यहाँ पहला उत्तर यह बताता है कि गोश्त गला न था अर्थात कच्चा था और दूसरे में गला न था अर्थात गला बेसुरा था ।
हिन्दी दो-सुखना
खिचड़ी क्यों न पकार्इ?
कबूतरी क्यों न उड़ार्इ?
छड़ी न थी।
इन 'दो सुखना को समझने के लिए आम आदमी की भाषा की जानकारी होनी चाहिए। कबूतरी के संबंध में छड़ी का अर्थ बहुज्ञात है। पर खिचड़ी से उसका संबंध जानने के लिए लोकभाषा का ज्ञान अपेक्षित है। 'छड़ना क्रिया का अर्थ छड़ी से पीटना होता है। बाजरे की खिचड़ी बनाने के लिए उसके उफपर का बारीक छिलका उतारना षरूरी होता है। बाजरे की ढेरी को जब छड़ी से पीटा जाता है तो उसे छड़ना कहते हैं। यह प्रयोग हरियाणवी में विशेष रूप से देखा जा सकता है। बाजरे की ढेरी क्योंकि छड़ी नहीं गर्इ थी। इसलिए उसकी खिचड़ी न बन सकी।
अनमेलिया या ढकोसला : ऐसी कविता को जिसमें अर्थ की संगति या मेल नहीं है, अनमेलिया या ढकोसला कहा गया है। इस काव्य-रूप में भी शुद्ध मनोरंजन-तत्त्व प्रधान है। ख़ुसरो की कविता में आशु-प्रयोग ही अनमेलिया या ढकोसले के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। उनका एक ढकोसला तो बहुत प्रसिद्ध है। वे एक बार कहीं जा रहे थे। रास्ते उन्हें बहुत प्यास लगी। चलते-चलते उन्हें एक कुआँ मिला जिसपर पनिहारिनें पानी भर रही थीं। प्यास से व्यावुफल ख़ुसरो ने पनिहारिनों से पानी माँगा। उन्होंने ख़ुसरो को पहचान लिया और कविता सुनकर ही पानी पिलाने की शर्त रखी। सबने अपनी-अपनी पसंद के विषयों पर कविता सुनने की फ़रमाइश की। तब ख़ुसरो ने तुरंत यह ढकोसला कहा था :
खीर पकार्इ जतन से और चरखा दिया जलाय
आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजाय
ला पानी पिला
ग़ज़ल : 'ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी और उर्दू की सबसे लोकप्रिय विधा है। पिछले 30-40 वर्षों में हिन्दी में भी ख़ूब ग़ज़लें कही गर्इ हैं। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ है प्रेयसी से बातचीत। दो-दो पंक्तियों के समन्वय से इसमें शेरों की संरचना होती है। ये पंकितयाँ अथवा चरण 'मिसरा कहलाते हैं।
ख़ुसरो ने फ़ारसी में बड़ी संख्या में ग़ज़लें कहीं हैं। हिन्दी में उतनी ग़ज़लें उन्होंने नहीं कही हैं पर उन्होंने हिन्दी और फ़ारसी में सम्मिलित रूप से ग़ज़ल कहने का अदभुत प्रयास किया है। इस शैली की उनकी यह ग़ज़ल बहुत चर्चित हैं :
जे हाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराए नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताबे-हिजराँ न दारम ऐ जाँ, न लीहयो काहे लगाए छतियाँ
निष्कर्ष यह कि ख़ुसरो का काव्य दो संस्कृतियों के बीच पुल बनाने वाला ही नहीं, बल्कि वह तो ऐसी चादर बुनने वाला है, जिसका ताना यदि मुस्लिम संस्कृति का है तो बाना हिन्दू संस्कृति का और यह आंतरिक संयोजन उनके रक्त में ही है। अमीर ख़ुसरो एक भारतीय माँ और तुर्की पिता की संतान थे। उनमें दो संस्कृतियों का सम्मिलन था और दोनों के उत्तमांश को उन्होंने संजोया था। उन्हें भारतीय होने का बहुत गर्व था और वे हिंदवी से गहरा अनुराग रखते थे। आम आदमी की ज़बान को ख़ुसरो ने साहित्यिक भाषा हिंदवी में ढाल दिया और इसे वे न अरबी से कमतर मानते थे, न फ़ारसी से। हिंदवी अर्थात् खड़ी बोली में रचित उनके काव्य की मूल संवेदना भी दो संस्कृतियों के बीच पुल बनाने वाला ही है। अमीर ख़ुसरो का काव्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत के अतिरिक्त ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश इत्यादि देशों में ख़ुसरो की कविताओं को बड़े उत्साह से पढ़ा जाता है। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता, प्रेम, सौहार्द्र, मानवतावाद और सांस्कृतिक समन्वय के लिए पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम किया। इसलिए हिन्दू-मुस्लिम एकता के ख़ुसरो अग्रदूत हैं। उनकी शायरी इसीलिए जन-जन में लोकप्रिय हुई और अभी तक उसकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई है।

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