मंझन की नायिका मधुमालती का रूप-सौन्दर्य

मंझन की नायिका मधुमालतीका रूप-सौन्दर्य

शाहिद इलियास
सूफ़ियों के अनुसार, यह सारा जगत् एक ऐसे रहस्यमय प्रेमसूत्र में बँधा है जिसका अवलंबन करके जीव उस प्रेममूर्ति तक पहुँचने का मार्ग पा सकता है। सूफ़ी सब रूपों में उसकी छिपी ज्योति देखकर मुग्ध होते हैं, 'प्रेम-रस बून्दन' के दीवाने हो जाते हैं। मधुमालती के विराट्, व्यापक और अनुपम रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए मंझन कहते हैं
देखत ही पहिचानेउ तोहीं। एही रूप जेहि छँदरयो मोही
एही रूप बुत अहै छपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिभुवन कर जीऊ
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा
उपर्युक्त पंक्तियों में मंझन ने समासोक्ति पद्धति में ईश्वर की ओर संकेत किया है और मधुमालती के रूप-सौन्दर्य  के बहाने समस्त सौन्दर्य के शाश्वत स्रोत परम प्रीतम ईश्वर के अनुपम रूप-सौन्दर्य का सरस, सम्मोहक और जीवन्त चित्रण किया है। सुन्दर वस्तु शाश्वत और आनन्ददायिनी होती है। इन पंक्तियों में प्रकृति में व्याप्त ईश्वर के व्यापक रूप-सौन्दर्य की ओर संकेत किया है। मतलब यह कि जायसी ने जिस पारसरूप की कल्पना की है, मंझन ने उसी का परिचय बख़ूबी इन पंक्तियों में कराया है। ईश्वर सर्वव्यापी है, यत्र-तत्र सर्वत्र मौजूद है, सृष्टि के कण-कण में विभिन्न रूपों में मौजूद है। प्रकृति के कण-कण से प्रभु के रूप-सौन्दर्य की अनुपम आभा तीनों लोकों में निरन्तर प्रकट हो रही है।
ईश्वर का विरह, प्रेम की पीर सूफ़ियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की आँख नहीं खुल सकती
बिरह अवधि अवगाह अपारा । कोटि माहिं एक परै त पारा
बिरह कि जगत् अबिरथा जाही?। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही
नैन बिरह अंजन जिन सारा । बिरह रूप दरपन संसारा
कोटि माहिं बिरला जग कोई । जाहि सरीर बिरह दु:ख होई
रतन की सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन बन ऊपजै, बिरह कि तन तन होइ?
जिसके हृदय में वह विरह होता है उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा का आभास अनके रूपों में होता है। तब वह देखता है कि इस सृष्टि के सारे रूप, सारे व्यापार उसी का विरह प्रकट कर रहे हैं।
इस प्रकार मंझन कृत 'मधुमालती' प्रेम की सर्वोच्च और आदर्श कथा बखान करती है। इस कथा में पूर्वजन्म के प्रणय-संस्कारों का महत्त्व भी दिखाया गया है। कथा में ''कथानायक मनोहर एक ओर तो मधुमालती की प्राप्ति के लिए भांति-भांति के कष्टों को सहन करता है तो दूसरी ओर महासुंदरी प्रेमा के प्रणय-प्रस्ताव को ठुकरा देता है। सामान्यतः हिंदी प्रेमाख्यानों में नायक को बहुपत्नीवादी दिखाया गया है, किन्तु यह प्रेमाख्यान इसका अपवाद है। प्रेमाख्यानों की परंपरागत रूढ़ियों में से नायक के योगी हो कर घर से निकलने, किसी अन्य राजकुमारी को राक्षस से बचाने, माँ के शाप के कारण नायिका के पक्षी हो जाने आदि का निर्वाह इसमें मिलता है।'' यह कथा भी लौकिक वर्णन से अलौकिकता का संकेत करती है और विरह का उच्चादर्श 'बिरह रूप दरपन संसारा' भी प्रस्तुत करती है।
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने मधुमती की कथानक–शैली को 'भारतीय की अपेक्षा असीरियन कहना अधिक उचित' कहा है, क्योंकि सभी असीसिरियन काव्य-शैलियाँ और काव्य-रूढ़ियाँ ईरानी साहित्य में गृहीत हो गई थीं और फ़ारसी कवियों के माध्यम से भारतवर्ष में भी मध्ययुग में आने लगी थीं। मृगावती के समान ही मधुमालती में भी उड़ने वाली स्त्रियों वाली कथानक-रूढ़ि का व्यवहार हुआ है।
'मधुमालती' की एक खंडित प्रति से इनकी कोमल कल्पना और स्निग्ध सहृदयता का पता लगता है। 'मधुमालती' में पाँच चौपाइयों के उपरांत एक 'दोहे' का क्रम रखा गया है। इसकी कल्पना विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है। आध्यात्मिक प्रेमभाव की व्यंजना के लिए प्रकृति के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है। कहानी भी कुछ अधिक जटिल और लंबी है जो यहां दी जाती है
कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातोंरात महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा 'मेरा अनुराग तुम्हारे ऊपर कई जन्मों का है इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।' बातचीत करते-करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने-अपने स्थान पर जगे तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र मार्ग से यात्रा की। मार्ग में तूफ़ान आया जिसमें इष्ट मित्र इधर-उधर बह गए। राजकुमार एक पटरे पर बहता हुआ एक जंगल में जा लगा, जहाँ एक स्थान पर एक सुंदर स्त्री पलँग पर लेटी दिखाई पड़ी। पूछने पर जान पड़ा कि वह चितबिसरामपुर के राजा चित्रसेन की राजकुमारी प्रेमा थी जिसे एक राक्षस उठा लाया था। मनोहर राजकुमार ने उस राक्षस को मारकर प्रेमा का उद्धार किया। प्रेमा ने मधुमालती का पता बता कर कहा कि मेरी वह सखी है। मैं उसे तुझसे मिला दूँगी। मनोहर को लिए हुए प्रेमा अपने पिता के नगर में आई। मनोहर के उपकार को सुनकर प्रेमा का पिता उसका विवाह मनोहर के साथ करना चाहता है। पर प्रेमा यह कहकर अस्वीकार करती है कि मनोहर मेरा भाई है और मैंने उसे उसकी प्रेमपात्री मधुमालती से मिलाने का वचन दिया है।
दूसरे दिन मधुमालती अपनी माता रूपमंजरी के साथ प्रेमा के घर आई और प्रेमा ने उसके साथ मनोहर कुमार का मिलाप करा दिया। सबेरे रूपमंजरी ने चित्रसारी में जाकर मधुमालती को मनोहर के साथ पाया। जगने पर मनोहर ने तो अपने को दूसरे स्थान में पाया और रूपमंजरी अपनी कन्या को भला बुरा कहकर मनोहर का प्रेम छोड़ने को कहने लगी। जब उसने न माना तब माता ने शाप दिया कि तू पक्षी हो जा। जब वह पक्षी होकर उड़ गई तब माता बहुत पछताने और विलाप करने लगी, पर मधुमालती का कहीं पता न लगा। मधुमालती उड़ती-उड़ती बहुत दूर निकल गई। कुँवर ताराचंद नाम के एक राजकुमार ने उस पक्षी की सुंदरता देख उसे पकड़ना चाहा। मधुमालती को ताराचंद का रूप मनोहर से कुछ मिलता-जुलता दिखाई दिया इससे वह कुछ रुक गई और पकड़ ली गई। ताराचंद ने उसे एक सोने के पिंजरे में रखा। एक दिन पक्षी मधुमालती ने प्रेम की सारी कहानी ताराचंद से कह सुनाई जिसे सुनकर उसने प्रतिज्ञा की कि मैं तुझे तेरे प्रियतम मनोहर से अवश्य मिलाऊँगा। अंत में वह उस पिंजरे को लेकर महारस नगर में पहुँचा। मधुमालती की माता अपनी पुत्री को पाकर बहुत प्रसन्न हुई और उसने मंत्र पढ़कर उसके ऊपर जल छिड़का। वह फिर पक्षी से मनुष्य हो गई। मधुमालती के माता-पिता ने ताराचंद के साथ मधुमालती का ब्याह करने का विचार प्रकट किया। पर ताराचंद ने कहा कि 'मधुमालती मेरी बहन है और मैंने उससे प्रतिज्ञा की है कि मैं जैसे होगा वैसे मनोहर से मिलाऊँगा।' मधुमालती की माता सारा हाल लिखकर प्रेमा के पास भेजती है। मधुमालती भी उसे अपने चित्त की दशा लिखती है। वह दोनों पत्रों को लिये हुए दु:ख कर रही थीं कि इतने में उसकी एक सखी आकर संवाद देती है कि राजकुमार मनोहर योगी के वेश में आ पहुँचा है। मधुमालती का पिता अपनी रानी सहित दलबल के साथ राजा चित्रसेन (प्रेमा के पिता) के नगर में जाता है और वहाँ मधुमालती और मनोहर का विवाह हो जाता है। मनोहर, मधुमालती और ताराचंद तीनों बहुत दिनों तक प्रेमा के यहाँ अतिथि रहते हैं। एक दिन आखेट से लौटने पर ताराचंद, प्रेमा और मधुमालती को एक साथ झूला झूलते देख प्रेमा पर मोहित होकर मूर्छित हो जाता है। मधुमालती और उसकी सखियाँ उपचार में लग जाती हैं।

'मधुमालती का रचनाकाल 952 हिजरी (सन् 1545 ई.) है। इसमें, जैसा कि ऊपर कहा गया है, कनकगिरि नगर के राजा सुरजभान के पुत्र मनोहर और महारस नगर नरेश विक्रमराय की कन्या मधुमालती की सुखांत प्रेमकहानी कही गई है। इसमें ''जो सभ रस महँ राउ रस ताकर करौं बखान'' कविस्वीकारोक्ति के अनुसार जो सभी रसों का राजा (श्रृंगार रस) है, उसी का वर्णन किया गया है, जिसकी पृष्ठभूमि में प्रेम, ज्ञान और योग है। उनके जीवन-दर्शन की मूलभित्ति ज्ञान-योग-संपन्न प्रेम है। प्रेम की जैसी असाधारण और पूर्ण व्यंजना मंझन ने की है, वैसी किसी अन्य हिंदी सूफ़ी कवि ने नहीं की। मंझन ने बड़े ही चित्ताकर्षक ढंग से मधुमालती के रूप-सौन्दर्य के बहाने समस्त प्रकृति में व्याप्त ईश्वर के व्यापक रूप की ओर संकेत किया है। सूफ़ी-दर्शन को उन्होंने बड़े सलीक़े से सरस, मनोरम और जीवन्त रूप में अपने सुप्रसिद्ध प्रेमाख्यान 'मधुमालती' में प्रस्तुत किया है।

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